प्रधानमन्त्री मोदी को शर्म आई, मगर गोदी मीडिया को शर्म कब आएगी?

कलीमुल हफीज।

कलीमुल हफ़ीज़

लोकतान्त्रिक व्यवस्था में शक्ति का स्रोत जनता होती है। ये वाक्य सुनते-सुनते हमने जवानी की देहलीज़ पार करके बुढ़ापे में क़दम रख लिया था, मगर कभी इसको प्रेक्टिकली देखने का अवसर नहीं मिला था, अगर देखा था तो बस इतना कि चुनाव के मौक़े पर जनता अपनी ताक़त से सरकार बदलती रहे, लेकिन अपने ही वोटों से चुनी हुई सरकारों को अपने फ़ायदों और हितों के ख़िलाफ़ काम करते भी देखती रहे।

आज़ाद भारत में ऐसा पहली बार देखने को मिला कि एक मज़बूत सरकार और छप्पन इंच का सीना रखनेवाले प्रधानमन्त्री को जनता की ताक़त के सामने घुटने टेकने पड़े। किसानों के इस आन्दोलन ने देश में लोकतन्त्र के सम्मान में बढ़ोतरी की, लोकतन्त्र पर यक़ीन को बढ़ाया, मज़लूमों, कमज़ोरों और मायनॉरिटीज़ को हौसला दिया और इस वाक्य को प्रैक्टिकल रूप में देखने का मौक़ा दिया कि लोकतान्त्रिक व्यवस्था में शक्ति का असल स्रोत जनता होती है।

नवम्बर 2020 से शुरू होनेवाला आन्दोलन बहुत-से मरहलों से गुज़रा, उसपर तीनों मौसम आकर गुज़र गए, आन्दोलन में शामिल लोगों ने सख़्त सर्दियाँ भी झेलीं, गर्म हवाओं के थपेड़े भी उनके हौसले को न पिघला सके, मूसलाधार बारिशें भी इनकी आरज़ुओं को बहाकर न ले जा सकीं, उन पर तरह-तरह की मुसीबतें आईं, हज़ारों लोग बीमार हुए, आठ सौ से कुछ कम या ज़्यादा लोगों ने शहादत का जाम पी लिया, पुलिस के अत्याचार भी सहन किये, देश से ग़द्दारी करने के आरोप भी लगाए गए।

सरकारी हरकारों ने उन्हें डराने, धमकाने के साथ-साथ ख़रीदने की भी कोशिशें कीं, गोदी मीडिया ने उन्हें देशद्रोह साबित करने का कोई अवसर हाथ से न जाने दिया। मगर तमाम हथकण्डे उनको अपने इरादे से रोक न सके, देश के लाखों किसान एक साल से अपने घर से अलग रहने पर मजबूर हुए, दर्जनों त्यौहार सड़कों पर मनाए गए, करोड़ों रुपये का नुक़सान हुआ, लेकिन किसानों ने अपनी नस्ल के बेहतर भविष्य और देश को आर्थिक ग़ुलामी से नजात दिलाने के लिये ख़ुद को संगठित रखा। आख़िरकार केन्द्र सरकार को झुकना पड़ा और मोदी जी ने किसानों से माफ़ी माँगते हुए तीनों क़ानून वापस लेने का ऐलान किया।

कृषि क़ानूनों की ये वापसी केन्द्र सरकार की खुली हुई नाकामी है। अगर सरकार को अपने क़ानूनों के हितकारी होने पर पूरा यक़ीन था तो उसे ये क़ानून वापस नहीं लेने चाहिये थे, बल्कि इस्तीफ़ा देना चाहिये था। अगर मोदी सरकार इस्तीफ़ा देती तो हम ये समझते कि सरकार इन क़ानूनों को लेकर गम्भीर है और इन क़ानूनों को देश के हित में लाई है, क़ानूनों की वापसी के ऐलान ने इस भ्रम को तोड़ दिया और ये साबित कर दिया कि आदर्श की बात करनेवाले भी ख़ुदग़र्ज़ और स्वार्थी हैं। वो भी केवल सत्ता के भूखे हैं। जब उन्हें लगा कि उनके नीचे से ज़मीन खिसक रही है, वो बंगाल में बुरी तरह हार चुके हैं, उपचुनावों में अपनी सीटें गँवा रहे हैं, और आनेवाले साल में सात राज्यों के चुनाव हारनेवाले हैं तो उन्होंने सभी आदर्शों को लात मारकर क़ानूनों की वापसी का ऐलान कर दिया।

मगर मेरा अनुमान है कि सरकार जिस तरह क़ानूनों को लाने में स्वार्थी थी और देश की अर्थव्यवस्था को अपने कुछ दोस्त पूँजीपतियों के हाथ गिरवी रखना चाहती थी उसी तरह वो क़ानूनों की वापसी में भी स्वार्थी है, वो चुनाव जीतने के बाद फिर किसी न किसी शक्ल में इन क़ानूनों को लाएगी, इसके इशारे इस सरकार के कुछ बड़े ज़िम्मेदार लोग दे भी चुके हैं। इसलिये आन्दोलनकारियों को केवल ऐलान से ख़ुश होकर जश्न नहीं मनाना है, बल्कि ऐसी सरकार को हमेशा के लिये ख़त्म कर देना है, जो छल-कपट से लोकतान्त्रिक व्यवस्था पर डाका डाल रही हो।

जबसे मौजूदा सरकार सत्ता में आई है, मीडिया का एक बड़ा गरोह इसकी तारीफ़ों के पुल बाँधने में आगे-आगे रहता है, इसे हम गोदी मीडिया कहते हैं। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का बड़ा हिस्सा अपने ऐश और आराम के लिये और सरकार की तरफ़ से फेंके गए रोटी के सूखे टुकड़ों के बदले चापलूसी की तमाम हदें पार कर चुका है। उसने अपनी आँखों पर सरकारी चश्मा लगा रखा है, उसने तमाम नैतिक और संवैधानिक मूल्यों को पैरों तले रौंद डाला है। कितनी ही बार इस गोदी मीडिया को अदालतें फटकार लगा चुकी हैं, अभी हाल ही में एक एंकर को जो नफ़रत का बड़ा सौदागर था दुबई के एक प्रोग्राम में शिरकत करने से रोक दिया गया है। ये उसके लिये भी अपमान की बात है और देश की तस्वीर भी दुनिया भर में दाग़दार हुई है।

मुसलमानों से नफ़रत में बढ़ोतरी करने में जहाँ साम्प्रदायिक टोले की योजनाबद्ध कोशिशें हैं वहीँ गोदी मीडिया ने इसमें घी का काम किया है। कोरोना मामले में तब्लीग़ी जमाअत को बदनाम करने का सेहरा राजधानी के मुख्यमन्त्री के सर पर है, मगर इसको हवा देने में गोदी मीडिया का अहम् रोल है। जमाअत के अमीर मौलाना सअद को देशद्रोही साबित करने में उसने दिन-रात एक किया है। इससे पहले CAA और NRC आन्दोलन के ख़िलाफ़ पूरे देश में माहौल बनाकर दिल्ली दंगा कराने में गोदी मीडिया के रोल से कौन इनकार कर सकता है। लेकिन अदालतों और अमन-परस्तों की फिटकार और विदेशों में प्रवेश से रोक दिये जाने के अपमान के बावजूद गोदी मीडिया को तौबा का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ।

कृषि क़ानूनों के फ़ायदे गिनानेवाला गोदी मीडिया की बेशर्मी की भी कोई हद है कि अब क़ानून-वापसी पर तारीफ़ों के पुल बाँधने में लगा हुआ है। नोटबंदी से लेकर आज तक मीडिया के इस सेक्शन ने कभी अपनी ज़िम्मेदारियाँ अदा नहीं कीं। अगर मैं ये कहूँ कि देश के मौजूदा बुरे हालात का सबसे बड़ा ज़िम्मेदार गोदी मीडिया है तो बे-जा न होगा। देश की एकता, अखण्डता और इसकी गंगा-जमनी तहज़ीब को जितना नुक़सान गोदी मीडिया ने पहुँचाया है उतना नुक़सान तो आरएसएस की सौ साला साज़िशों ने भी नहीं पहुँचाया। काश कभी देश में इंसाफ़पसन्द सरकार आए और गोदी मीडिया पर देश के साथ ग़द्दारी करने के लिये मुक़द्द्मा चलाकर पीड़ितों को राहत पहुँचाए।

किसानों का सफल आन्दोलन हालाँकि शाहीन बाग़ों से हौसला पाकर ही शुरू हुआ था, मगर इससे मुसलमानों को सबक़ लेने की ज़रूरत है। जिस तरह कृषि क़ानून किसानों की नस्लों के लिये तबाहकुन थे उसी तरह CAA और NRC पर आधारित क़ानून मुसलमानों की नस्लों के लिये तबाहकुन है। दो साल पहले शाहीन बाग़ जैसे धरनों ने इन क़ानूनों को ठण्डे बस्ते में ज़रूर डलवा दिया है, मगर ख़तरा पूरी तरह बाक़ी है। यह ख़तरा केवल बयान बाज़ियों से दूर नहीं होगा। इसका केवल एक ही हल है कि किसान आन्दोलन की तरह आन्दोलन चलाया जाए।

किसान आन्दोलन की एक ख़ूबी उनकी एकता थी। इन किसानों में अलग-अलग धर्मों और ज़ातों के लोग शामिल थे, मगर पूरे आन्दोलन में किसी समय भी धर्म और ज़ात को लेकर कभी मतभेद नहीं हुआ। वो बहुत-सी राजनीतिक पार्टियों से जुड़े हुए थे, लेकिन उनका इन राजनीतिक पार्टियों से ये कनेक्शन उनके मक़सद में रुकावट नहीं बना। पूरा आन्दोलन एक ही रंग में रंगा हुआ है जिसका नतीजा हमारे सामने है। क्या मुसलमान भी इस एकता और क़ुर्बानी का प्रदर्शन कर पाएँगे? क्या वो भी अपनी नस्लों के भविष्य के लिये अपने मतभेदों से ऊपर उठ सकेंगे? क्या वो बड़े मक़सद को हासिल करने के लिये अपने राजनीतिक कनेक्शंस की क़ुर्बानी देंगे?

अगर वो इसके लिये तैयार हैं तो उन्हें देश के काले क़ानूनों के ख़िलाफ़ आन्दोलन शुरू करना चाहिये। इसी के साथ ये भी याद रखना चाहिये कि मुसलमानों के आन्दोलन को कुचलने में फासीवादी ताक़तें एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा देंगी। इनके सीनों पर गोलियाँ चलाई जाएँगी, इनकी बस्तियों को आग के हवाले कर दिया जाएगा, इन पर ज़मीन तंग कर दी जाएगी, इनकी हिमायत में जो आवाज़ें उठेंगी वो भी इतनी ताक़तवर न होंगी जितनी किसान आन्दोलन के साथ थीं। इसके बावजूद अगर मुसलमान संगठित होकर डटे रहेंगे तो कामयाबी इनके भी क़दम चूमेगी। इसलिये कि कामयाबी का कोई धर्म नहीं होता, वो तो कोशिशों के साथ है।

की मिरे क़त्ल के बाद उस ने जफ़ा से तौबा।
हाए उस ज़ूद-पशीमाँ का पशीमाँ होना॥

कलीमुल हफ़ीज़, नई दिल्ली।

ये लेखक के अपने विचार हैं।

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