‘ दीनी जमाअतों और मिल्ली तंज़ीमों को प्रेस रिलीज़ से आगे बढ़ना चाहिये’

(हिकमत और मस्लिहत जब हद से गुज़र जाती है तो बुज़दिली और कम हिम्मती की हदों में दाख़िल हो जाती है)

हिकमत और मस्लिहत जब हद से गुज़र जाती है तो बुज़दिली और कम हिम्मती की हदों में दाख़िल हो जाती है।

कलीमुल हफ़ीज़

कभी-कभी हम अपनी बुज़दिली की वजह से ख़ामोशी को भी सब्र जैसा ख़ूबसूरत नाम दे देते हैं और अपने दिल को भले ही मुत्मइन न कर पाते हों लेकिन अपने अक़ीदतमन्दों को ज़रूर मुत्मइन कर देते हैं। बदक़िस्मती से भारत में हमारी सूरते-हाल कुछ ऐसी ही हो गई है। आज़ादी के बाद हर दिन हम ज़ख़्म खाते रहे, हर लम्हे पीछे धकेले जाते रहे, एक-एक चीज़ हमसे छीनी जाती रही और हम हिकमत, मस्लिहत और सब्र का दामन थाम कर ख़ुश होते रहे।

इसकी वजह शायद ये थी कि मुल्क के तक़सीम होने की घटना ने भारत की मुस्लिम लीडरशिप को इतना कमज़ोर कर दिया था कि वो आत्म-रक्षा की ताक़त भी खो चुके थे। इसलिये कि तक़सीम का ठीकरा भी इनके सर फोड़ा गया, रिश्तेदार भी इन्ही के तक़सीम हुए और जान व माल का नुक़सान भी इन्ही का हुआ। वरना आज़ादी के बाद हमारे साथ क्या न हुआ? हमारी इज़्ज़त व आबरू को तार-तार किया गया, हज़ारों दंगे हुए, लाखों क़त्ल हुए, हमारी पहचान मिटाई गईं, दिन के उजाले में ख़ुदा का घर गिराया गया, हमारी दीनी तंज़ीमों पर पाबन्दियाँ लगीं, बेगुनाह जेलों में क़ैद किये गए और अब इस्लाम के दाइयों और प्रचारकों की एक के बाद एक गिरफ़्तारियाँ की जा रही हैं। सत्ता में बैठे लोगों से लेकर अदालत की कुर्सी पर बैठे लोगों तक ने अपने अरमान पूरे किये, मगर हम यही कहते रहे कि ‘अल्हम्दुलिल्लाह अभी बहुत कुछ बाक़ी है’

हाँ अभी बहुत कुछ बाक़ी है, अभी हमारी मस्जिदों से बेरूह अज़ानों की सदाएँ बाक़ी हैं, हमारे मदारिस मैं ख़ुदा और रसूल के नाम पर इख़्तिलाफ़ी मसायल का निसाब बाक़ी है, अभी हमारे पर्सनल लॉ में ईजाब और क़बूल का नुक्ता बाक़ी है। अभी कुर्ता, पाजामा, शेरवानी और बिरयानी बाक़ी है। एक नजीब गुम हो गया है तो क्या हुआ अभी लाखों नजीब मौजूद हैं, एक आसिफ़ मारा गया तो क्या फ़र्क़ पड़ता है अभी करोड़ों आसिफ़ बाक़ी हैं। अभी तो हमें वोट देने का इख़्तियार बाक़ी है। इसलिये अभी किसी ऐसी इज्तिमाई कोशिश की ज़रूरत नहीं जिसके ज़रिए हम अपना खोया हुआ मक़ाम हासिल करें, अपने वक़ार और इज़्ज़त की जंग लड़ें, अपने बेगुनाहों को जेल में क़ैद होने से बचाएँ, अपने बुज़ुर्गों की दाढ़ियाँ नुचवाने से बचाएँ।

घर का बूढ़ा हमेशा हिकमत, मस्लिहत और सब्र की तलक़ीन ही करता है इसलिये कि उसका कमज़ोर जिस्म किसी हक़ के छीनने के क़ाबिल नहीं रहता। यही हमारी बूढ़ी लीडरशिप का हाल है। अगर पहले ही दिन हमने किसी एक चीज़ के छीन लिये जाने पर विरोध किया होता और उस चीज़ की वापसी तक एहतिजाज जारी रखा गया होता तो दूसरी चीज़ के छीन लिये जाने का ख़तरा न रहता। मगर हम तो फ़िरक़ों, मसलकों, ब्रादरियों के झगड़ों में लगे रहे, हमारे वो इदारे जो हमारी दीनी और मिल्ली पहचान और शान की हिफ़ाज़त के लिये क़ायम हुए थे, जिन्होंने अरबों रुपये चन्दे में हासिल किये, जिनके एक-एक जलसे पर करोड़ों रुपये ख़र्च हुए, जिनके आलीशान दफ़्तरों पर बेशुमार दौलत ख़र्च हुई, वो जलसे करने, तक़रीरें करने और खा-पीकर चले जाने तक ही रह गए।

इसके बावजूद भी उन बेरूह जिस्मों के गुज़रने पर हम नाक़ाबिले-तलाफ़ी नुक़सान का मातम करते हैं। कोई अमीरुल-हिन्द बनकर नाज़ कर रहा है, कोई मुट्ठी भर जमाअत के अमीर के पद पर बैठकर अमीरुल-मोमिनीन के ख़्वाब देख रहा है, कोई अपने साथ शाही का दुमछल्ला लगाकर ख़ुद को बादशाह समझ बैठा है। घर जल रहा है, गुलशन लुट रहा है, परवाने ख़ाक हुए जाते हैं, कलियाँ मसली जा रही हैं, फूल मुरझा रहे हैं और हम हिकमत के तक़ाज़े के तहत आरामगाहों में अपने अक़ीदतमन्दों के सामने अपने पूर्वजों के क़सीदे सुना रहे हैं।

आख़िर हम कब बेदार होंगे? क्या इसराफ़ील के सूर का इन्तिज़ार है? पिछले डेढ़-दो साल में देश में कितनी ही ऐसी घटनाएँ हुईं जिन्होंने हमें हज़ार साल पीछे धकेल दिया, मगर हम नहीं जागे। हम जिस कोरोना की आड़ में छिपने की कोशिश कर रहे हैं उसी कोरोना में CAA और NRC का क़ानून आया, इसी में राम-मन्दिर की बुनियाद रखी गई, इसी में कई राज्यों में धर्मान्तरण पर क़ानून बनाए गए, इसी में कश्मीर को बाँट दिया गया, इसी में तब्लीग़ी जमाअत को बदनाम करके मुसलमानों को मारा गया, इसी बीच दिल्ली जलाई गई। पहले उमर गौतम और अब कलीम सिद्दीक़ी जेल चले गए, मगर हम नहीं जागे।

हमारे जुब्बे और दस्तार पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा। हमने क्या किया? क्योंकि ये सवाल हर उस शख़्स से किया जाता है जो अपने इज्तिमाई इदारों से सवाल करता है। हमें ये नहीं भूलना चाहिये कि एक अकेला शख़्स न कुछ कर सकता है, न वो जवाबदेह है। करने की पोज़िशन में वो इज्तिमाई इदारे हैं जिन्होंने क़ौम को ऊपर उठाने का ठेका लिया है, जिसके नाम पर वो उम्मत की गाढ़ी कमाई वुसूल रहे हैं। जिनके पास हज़ारों और लाखों भक्त हैं।

किसी ने मदरसों को ऊपर उठाने का, किसी ने पर्सनल लॉ बचाने का, किसी ने इक़ामते-दीन का, किसी ने दावत का, किसी ने कल्चर को बचाने का। पिछले सत्तर सालों से ये ठेके इनके पास हैं। ज़रा ये ठेकेदार बताएँ तो सही कि क़ौम ने इनके साथ क्या कमी की है। इनके सम्मान में क़ौम ने अपनी पलकें बिछाईं, इनके दस्तरख़्वान पर क़ौम ने मुर्ग़ाबियाँ सजा दीं, इनके जलसों में क़ौम ने उनकी उम्मीदों से ज़्यादा भीड़ इकट्ठा की, क़ौम के मज़दूरों, रिक्शॉ चलानेवालों और ग़रीबों तक ने उनका हमेशा साथ दिया? कोई भी इज्तिमाई इदारा क़ौम की कोताही की निशानदेही नहीं कर सकता। मगर इन ठेकेदारों ने क़ौम को क्या वापस किया?

मैं आपसे किसी असंवैधानिक क़दम उठाने की बात नहीं कर रहा हूँ कि आप लाठी और डंडे लेकर निकलें। भारत का संविधान ही हमारा हर तरह मुहाफ़िज़ हो सकता था अगर हम इस संविधान को समझते और इस पर अमल करते, इसकी हिफ़ाज़त करते। मैं आपके ज़ख़्मों पर नमक इसलिये नहीं लगा रहा हूँ कि आपके दर्द में बढ़ोतरी करूँ, बल्कि मैं आपको दर्द का एहसास पैदा करने के लिये ऐसा कर रहा हूँ। क्योंकि आपके अन्दर से कुछ खोए जाने का एहसास भी जाता रहा, मैं केवल आपको आपके मक़सद और फ़र्ज़ याद दिला रहा हूँ जिसका आपने क़ौम से पूरा मुआवज़ा वुसूल किया है।

क्या आप असंवैधानिक क़ानून बनाए जाने को अदालत में चैलेंज नहीं कर सकते? क्या आप धर्मान्तरण क़ानून पर दूसरे धर्मों के साथ मिलकर कोई प्लानिंग नहीं कर सकते? क्या आप अपने नौजवानों को सिविल डिफ़ेंस की ट्रेनिंग नहीं दे सकते? क्या आप प्यारे वतन के अमन बर्बाद करनेवालों को जेल नहीं भिजवा सकते? क्या आप हुजरों और ख़ानक़ाहों से निकलकर सड़क पर विरोध प्रदर्शन नहीं कर सकते? क्या हम नहीं देखते कि किसान महीनों से सड़क पर हैं? क्या हमारी पाक लीडरशिप को क़ौम पर भरोसा नहीं रहा? मैं आपको यक़ीन दिलाता हूँ कि आप बाहर निकलिये तो सही क़ौम आपके पसीने के मुक़ाबले ख़ून बहाएगी।

अगर आप अब भी नहीं निकले तो याद रखिये कि ये देश आप पर इतना तंग हो जाएगा कि आप अपने हुजरों में भी अपनी मर्ज़ी से साँसें नहीं ले पाएँगे। इससे पहले कि भारत का संविधान मनु स्मृति के संविधान से बदल जाए, ख़ुदा के लिये अपने ज़ाती फ़ायदों और हितों को छोड़कर अपने-अपने मसलक और फ़िरक़ों को ताक़ पर रखकर संविधान की बालादस्ती के लिये, भारत की हज़ार साला गंगा-जमनी संस्कृति को बचाने के लिये, मज़लूमों की दादरसी के लिये ख़ुद ही बाहर निकलिये। हुज़ूर ये किसी का वलीमा और अक़ीक़ा नहीं है कि लोग आपके लिये दस्तरख़्वान लगाएँगे और पहले आप, पहले आप की रट लगाएँगे, बल्कि

ये बज़्मे-मय है यहाँ कोताह-दस्ती में है महरूमी।
जो बढ़कर ख़ुद उठा ले हाथ में मीना उसी का है॥

कलीमुल हफ़ीज़, नई दिल्ली

लेखक राजनीति के जानकार हैं।

ये लेखक के अपने विचार हैं।

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