मँहगाई यार छूने लगी है अब आसमाँ”

(कोरोना की मार के बाद मँहगाई की मार ने ग़रीबों से ज़िन्दगी की उम्मीद छीन ली है, राम नाम की सियासत करनेवालों को जनता की कोई चिन्ता नहीं)

कलीमुल हफ़ीज़

कलीमुल हफ़ीज़

जब से देश में भगवा फासीवाद की सरकार आई है तब से जन-कल्याण और ग़रीबी और निरक्षरता को ख़त्म करने के सारे प्रोग्राम ठन्डे बस्ते में चले गए हैं। कहने को तो देश 5 जी की दौड़ में शामिल हो गया है। शहरों की गलियों में वाई-फ़ाई के टावर लग गए हैं, मगर देश के नागरिकों की बड़ी संख्या दो वक़्त की रोज़ी रोटी के लिये परेशान है।

पिछले सात साल में करोड़ों नौजवान बेरोज़गार हो गए। नोटबन्दी के बाद से बाज़ार अपनी नार्मल हालत पर नहीं आए हैं। प्राइवेट सेक्टर में मुलाज़िमों की तादाद में कमी किये जाने और सरकारी संस्थाओं के निजिकरण की वजह से बेरोज़गारी में बढ़ोतरी हुई है। खाने-पीने की चीज़ों से लेकर शिक्षा और स्वास्थ्य से सम्बन्धित तमाम चीज़ों के दाम रोज़ बढ़ रहे हैं। अगर यही सूरते-हाल रही तो एक बड़ी आबादी लूटमार का रास्ता अपनाएगी या आत्महत्या कर लेगी।

मँहगाई के क़ियामत ढाने के बावजूद देशवासियों में कोई बेचैनी नज़र नहीं आ रही है। किसी व्यापारी संगठन की तरफ़ से बाज़ार बन्द का नारा नहीं दिया जा रहा है, कोई ट्रेड यूनियन हड़ताल का ऐलान नहीं कर रही है, लाल झण्डेवाले भी न जाने कहाँ चले गए जो ग़रीबों की मसीहाई का दम भरते थे। सियासी पार्टियों को भगवाधारियों ने अपनी मक्काराना सियासत से डिफ़ेंसिव पोज़िशन पर खड़ा कर दिया है। विरोधी दल को अपने ख़ेमे बचाने भारी पड़ रहे हैं, वो ग़रीबों की कुटिया कैसे बचाएँगे।

मज़हबी लीडरशिप अल्लाहु और राम नाम जपने में मस्त है, इसलिये कि उनके भक्तों की तरफ़ से नज़रो-नियाज़ और चढ़ावे मुसलसल पेश किये जा रहे हैं, फिर बेचारे अल्लहवालों को दुनियादारी से क्या मतलब? कोई भूख और ग़रीबी से मरता हो तो मरे उन्हें तो मरनेवाला भी फ़ातिहा और कर्मकाण्ड के नाम पर कुछ देकर ही जाता है। नहीं मालूम हमारे समाज से इन्सानी मुहब्बत की बेहतरीन मिसालें कहाँ गुम हो गईं? वो जुरअत और हिम्मत कहाँ चली गई जो मँहगाई के आसमान पर जाने से पहले आसमान सर पर उठा लेती थी?

हम सिर्फ़ पेट्रोल और डीज़ल का रोना रो रहे हैं, क्योंकि उसके दाम की ख़बर अख़बारों में आ जाती है, मगर सरसों के तेल की ख़बर अख़बार की हैडिंग बहुत ही कम बनती है। 2014 में पेट्रोल की क़ीमत 70 रुपये लीटर थी जो अब एक सौ रुपये है, लेकिन सरसों का तेल उस वक़्त 65 रुपये लीटर था जो आज 210 रुपये लीटर है। सीमेंट की बोरी 2014 में 195 रुपये की मिलती थी अब 410 रुपये में मिलती है। स्टील का रेट 3600 रुपये क्वेंटल था आज 6500 रुपये है। रेत की पूरी ट्रॉली 1500 रुपये में मिल जाती थी आज चार गुना क़ीमत देना पड़ती है। 350 रुपये का गैस सिलेंडर आज 900 रुपये का हो गया है। दालें जो 40 या 50 रुपये किलो थीं आज 150 रुपये से 180 तक पहुँच गई हैं।

हर तरह की सरकारी फ़ीस में बढ़ोतरी हो गई है, ड्राइविंग लाइसेंस जो 2014 में केवल 250 में बन जाता था इस वक़्त 5500 रुपये सरकारी फ़ीस देनी पड़ती है, ज़मीनों की क़ीमतें भी बढ़ीं और रजिस्ट्री का ख़र्च भी। 2014 में 27 करोड़ ख़ानदान ग़रीबी रेखा से नीचे थे आज 35 करोड़ हैं। 2014 में देश पर ढाई लाख करोड़ का क़र्ज़ था आज 25 लाख करोड़ का क़र्ज़ा है। इसके बावजूद हम सो रहे हैं, कहने को तो हमारी दीनी और समाजी तन्ज़ीमों की तादाद में बढ़ोतरी हो रही है, मगर जनता की मुश्किलों पर उनकी आवाज़ सुनाई नहीं दे रही है।


सरकारें जो ग़रीबी को दूर करने के नाम पर अपना चुनावी घोषणा पत्र जारी करती हैं वो ग़रीबों को ही मिटाने का मंसूबा बनाने लगती हैं। दिल्ली की सरकार बड़े ज़ोर-शोर से ऐलान करती है कि वह जनता को फ़्री बिजली-पानी दे रही है, उसने कोरोना के ज़माने में दस लाख लोगों को दोनों वक़्त खाना दिया है, कभी यह नहीं सोचा कि उसने दिल्ली की जनता को भिखारी बना दिया है। ग़रीबी ख़त्म करने के बजाय ग़रीबों की संख्या में बढ़ोतरी की है।

दूसरी तरफ़ केन्द्र सरकार, जिसने वादा किया था कि करप्शन को दूर करेगी, काला धन वापस लाएगी, हर साल एक करोड़ नौजवानों को नौकरी देगी, ख़ुशहाल भारत बनाएगी, हरित क्रान्ति लाएगी, आत्म-निर्भरता पैदा करेगी, देश को विश्व गुरु बनाएगी, उसके ये वादे मात्र जुमले साबित हुए। उसे मुस्लिम महिलाओं की फ़िक्र सताई और तलाक़ बिल लाई, उसने शुरू से ही धार्मिक साम्प्रदायिकता का राग अलापा और आख़िरकार राम मन्दिर की नींव का पत्थर रखा, कश्मीरियों की समस्याएँ हल करने के बजाय उनके जिस्म के टुकड़े कर दिये। गाय के नाम पर लिंचिंग को हवा दी, हर वक़्त और हर जगह हिन्दू-मुस्लिम की सियासत की। क्या यही देशभक्ति है?

देश के कई राज्यों में अगले साल चुनाव होने वाले हैं। हर चुनाव को बीजेपी साम्प्रदायिक बना देती है, मेरी राय है कि अपोज़ीशन पार्टियों को एक एक करके जनता के सामने मूल समस्याओं को रखना चाहिये। इस वक़्त महँगाई चरम पर है, यह सही वक़्त है, अगर हमारी समाजी और सियासी पार्टियाँ महँगाई के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाएँ, विरोध प्रदर्शन करें, सड़कों पर आएँ, जेल भरो आन्दोलन करें, असहयोग और सत्याग्रह का ऐलान करें।

क्या गाँधी जी का नाम इस्तेमाल करनेवाले गाँधी जी का किरदार भुला चुके हैं? क्या राम मनोहर लोहिया की तस्वीर लगानेवाले उनके समाजी आन्दोलन को भूल चुके हैं? क्या लोकतन्त्र में जनता की समस्याओं को उठाना, संविधान के दायरे में रहकर सरकार की आलोचना करना, उसको तवज्जोह दिलाना भी जुर्म है? ज़बान-बन्दी का यह माहौल हमारी बेहिसी का मुँह बोलता सुबूत है। हमें इस दुनिया से बाहर आना होगा। भूख, ग़रीबी और महँगाई की मार झेल रही इन्सानियत के दर्द को समझना होगा। देश में महँगाई का नाग डस रहा है और भगवा सरकारें धार्मिक साम्प्रदायिकता में लगी हैं।

कभी आबादी कन्ट्रोल के नाम पर बिल लाया जा रहा है, कभी धर्म परिवर्तन के ख़िलाफ़ क़ानून बनाया जा रहा है, नेता तो नेता रहे मुझे हैरत है कि दिल्ली हाई-कोर्ट के क़ाबिल जज साहिबों को भी संविधान में दर्ज यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड ही याद है और नागरिकों के मूल अधिकारों के तहत उनकी मज़हबी आज़ादी याद नहीं? क्या भारत का सबसे बड़ा मसला यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड है, ग़रीबी, जहालत, भुखमरी, लिंचिंग और महँगाई कोई मसला नहीं। सम्मानित अदालत ने यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड का नया शिगूफ़ा छोड़कर सरकार को ‘नया सियासी टूल उपलब्ध’ कर दिया है जिसके ज़रिए जनता की तवज्जोह आसानी से बुनियादी मसलों से हटाई जा सकती है।

न्याय और इन्साफ़ का तक़ाज़ा है कि हमें कोरोना से मरने वाले लगभग दस लाख लोगों के ख़ानदानवालों की समस्याओं को भी देखना चाहिये। जिसमें लगभग 50 लाख लोग बेसहारा हुए हैं। आनेवाली तीसरी लहर की तैयारियों का जायज़ा भी लेना चाहिये। ग़रीबों के ठन्डे चूल्हों पर भी नज़र रखनी चाहिये और उन्हें भीख नहीं उनका हक़ देना चाहिये। एक लोकतान्त्रिक वेलफ़ेयर स्टेट की ज़िम्मेदारी, नागरिकों को ज़िन्दगी की बुनियादी ज़रूरतें उपलब्ध कराना है। मज़हबी आज़ादी, देश की अखण्डता और एकता की सुरक्षा, भुखमरी का ख़ात्मा और ख़ुशहाल भारत का निर्माण हमारी पहली प्राथमिकता और सरकार की ज़िम्मेदारियों में शामिल है।

  • मँहगाई यार छूने लगी है अब आसमाँ।
  • दिल्ली के तख़्त पर किसे बिठा दिया गया॥

यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं।

  • Related Posts

    गुरूग्राम जिला में लोकसभा चुनाव की तैयारियां पूर्ण-डीसी निशांत कुमार यादव

    ईपीआईसी कार्ड छापने की व्यवस्था की जाएगी शीघ्र पोस्टल बैलेट पेपर की गणना के लिए बनेगा अलग काऊंटिंग सैंटर गुरूग्राम, 16 अप्रैल। डीसी एवं जिला निर्वाचन अधिकारी निशांत कुमार यादव…

    दो पल – अतीत के (हौसला)

    यह बात करीब 1970 की है, मैं अपनी ठोडी को दोनो हथेलियों पर टिकायें और दोनो कोहनियों को मेज पर रखे अचेतनता की उन्मीलित मुद्रा में कक्षा में बैठा था।…

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    You Missed

    AMU Student Selected to Represent India at 20th Asian Roller Skating Championship in South Korea

    AMU Student Selected to Represent India at 20th Asian Roller Skating Championship in South Korea

    Indian Forum for Education (IFE) Organizes Grand NEET Mock Test in Riyadh — Over 100 Aspirants Participate

    Indian Forum for Education (IFE) Organizes Grand NEET Mock Test in Riyadh — Over 100 Aspirants Participate

    AMU NSS Celebrates Dr. B. R. Ambedkar Jayanti with Grand Programmes Promoting Equality and Empowerment

    AMU NSS Celebrates Dr. B. R. Ambedkar Jayanti with Grand Programmes Promoting Equality and Empowerment

    National Workshop at AMU Equips Researchers with Next-Gen Data Analysis Tools

    National Workshop at AMU Equips Researchers with Next-Gen Data Analysis Tools

    Mission Shakti: A Step Towards Women Empowerment

    Mission Shakti: A Step Towards Women Empowerment

    Traffic Negligence: A Silent Killer Fueling Rising Accidents in India”

    Traffic Negligence: A Silent Killer Fueling Rising Accidents in India”
    × How can I help you?