बुज़दिली को हमने पहनाया है हिकमत का लिबास

(सारी दुनिया अपनी फ़तह के ख़्वाब देखती है और उसे पूरा करने के लिये प्लानिंग करती है और हम किसी की हार देखकर मुत्मइन हैं)

कलीमुल हफ़ीज़

हिकमत और मस्लिहत दोनों लफ़्ज़ों का बड़ा शोषण किया गया है। इन अलफ़ाज़ पर आज़ाद भारत में मुसलमानों ने सबसे ज़्यादा ज़ुल्म किया है।

कलीमुल हफ़ीज़

मुसलमानों में भी माफ़ कीजिये हमारे दीनी पेशवा इसमें सबसे आगे रहे हैं। इसका नतीजा ये निकला कि आज मुस्लिम क़ौम के बुज़ुर्ग ही नहीं जवान भी मस्लिहत परस्ती का शिकार हो गए हैं। डर और दहशत हमारे दिलों में घर कर गया है। देश आज़ादी की 75वीं वर्षगाँठ ‘अमृत महोत्स्व’ मना रहा है। हम पिछले 75 साल के ज़ख़्मों को सहला रहे हैं।

इसी मस्लिहत ने हमारे पर्सनल लॉ में सरकारी हस्तक्षेप का दरवाज़ा खोल दिया। इसी की वजह से हमारी मस्जिदों पर ताले डाले जाते रहे, यहाँ तक कि दर्जनों मस्जिदें गिरा दी गईं, यही हिकमत हमें दुनियावी तालीम से दूर करती रही, इसी की वजह से हम सियासी इत्तिहाद से महरूम रहे, अब यही हिकमत हमारे वजूद को मिटाने के दरपे है। हम अपनी कमज़ोरी को मस्लिहत और बुज़दिली को हिकमत के ख़ूबसूरत शब्दों में ढालकर इत्मीनान की साँस ले रहे हैं।

मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड क़ायम ही इसलिये हुआ था कि 1937 के मुस्लिम पर्सनल लॉ एक्ट को बदस्तूर लागू किया जाए, इस्लाम के ख़ानदानी मसलों से मुसलमानों को आगाह किया जाए, इनको शरीअत के हुक्मों और क़ानूनों से परिचित कराया जाए और सरकार को इस बात का मौक़ा न दिया जाए कि वो उसमें कोई मुदाख़लत और हस्तक्षेप करे। पचास साल गुज़र जाने के बावजूद इदारे के ज़िम्मेदार ये नहीं कह सकते कि भारत के मुसलमान इस्लाम के ख़ानदानी निज़ाम और क़ानूनों से परिचित हो चुके हैं।

एक बड़े इदारे के लिये आधी सदी का वक़्त कुछ कम नहीं होता, और वो भी उस इदारे के लिये जिसका हर शख़्स ख़ुद एक इदारा है। अगर वो फ़ैसले लेता और क़दम बढ़ाता तो यक़ीनन मुसलमान ही नहीं ग़ैर-मुस्लिम भी इस्लाम के ख़ानदानी निज़ाम से परिचित हो सकते थे। पूरे पचास साल गुज़र गए, शाह बानो केस को छोड़ दीजिये तो कोई ख़ास कारनामा बोर्ड की डायरी में नहीं है। इसकी वजह शायद ये मस्लिहत रही हो कि मुसलमानों के बीच इख़्तिलाफ़ात उभरकर सामने आएँगे, जैसा कि तीन तलाक़ के मौक़े पर हुआ भी। या कभी किसी प्लानिंग को ये कहकर ताक़ पर रख दिया गया हो कि अभी मुनासिब वक़्त नहीं।

यही कुछ सूरते-हाल हमारी मस्जिदों की रही। मस्जिदों का रिकॉर्ड नहीं रखा गया। वक़्फ़ में दर्ज कराने तक को मस्लिहत के नाम पर नापसन्द किया गया। मसलकी झगड़ों की वजह से एक-दूसरे की मस्जिदों को बनने से रोकते और रुकवाते रहे, पुलिस और अदालतों में मुक़दमे ले जाते रहे, आख़िरकार वो दिन देखने को मिला कि जब वो मस्जिद गिरा दी गई जिसको खुलवाने के लिये मुसलमानों ने अपने लीडर्स पर भरोसा किया था।

बाबरी मस्जिद के बचाव के लिये जो क़ानूनी कोशिशें की गईं, उनको यक़ीनन सराहा जाना चाहिये। लेकिन सुप्रीम कोर्ट में मुक़दमे में सुनवाई के दौरान जब हम ये जानते थे कि विपक्ष कोई सुबूत पेश नहीं कर सका, उसकी दलीलें बोदी और कमज़ोर हैं तो भारतीय संविधान की किस धारा और क़ानून के किस हुक्म के तहत ये शपथ पत्र दिया गया कि जो भी फ़ैसला होगा तस्लीम कर लिया जाएगा, आख़िर ये कहने में क्या बे-हिकमती थी कि अगर फ़ैसला इन्साफ़ के मुताबिक़ होगा तो मान लिया जाएगा वरना नहीं माना जाएगा।

इसका मतलब ये है कि हमें डर था कि अगर हम तस्लीम न करने की बात करेंगे तो ख़ून-ख़राबा हो सकता है, दंगे भड़क सकते हैं, शायद हमारे बुज़ुर्गों ने इस हिकमत और मस्लिहत के तहत इसी में आफ़ियत समझी कि पूरे देश को ये यक़ीन दिलाया जाए कि अदालत का फ़ैसला मान लिया जाएगा। लेकिन इसका नुक़सान ये हुआ कि अदालत में आस्था को सुबूत का दर्जा मिल गया, विरोधियों को हौसला मिल गया कि अब वो काशी और मथुरा में जमा हों। अगर हिम्मत और हौसले से काम लेकर ये तरीक़ा अपनाया जाता कि इन्साफ़ पर आधारित फ़ैसला मान लिया जाएगा तो आपके नौजवानों में जोश और हौसले को ख़ुराक मिलती और अदालत फ़ैसला न कर पाती।

हमारा पूरा तालीमी निज़ाम (Education System) मस्लिहत पसन्दी का शिकार हो गया। सरकारी इदारों में इसलिये नहीं गए कि वहाँ दुनिया-परस्ती और कुफ़्र था, मदरसों में दुनियावी तालीम को इसलिये दाख़िल नहीं होने दिया कि ये कुफ़्र हमारे दीन को बिगाड़ देगा, हमारे एक बुज़ुर्ग रहनुमा ने ये फ़रमान जारी किया कि हम जाहिल रह सकते हैं लेकिन वन्दे मातरम् नहीं कहेंगे, उनके ईमानी जज़्बे को सलाम कीजिये, काश! कि वो इसके बजाय जहालत को दूर करने का अल्टरनेटिव सिस्टम दे देते तो शायद ये कहने की नौबत ही न आती।

आज़ादी के बाद कुछ कम या ज़्यादा पचास साल तक हमारे दीनी इदारे देशवासियों की ज़बान से दूर रहे, इस छोटी और संकुचित सोच ने हमें अच्छे वकीलों और माहिर डॉक्टर्स से महरूम रखा। लड़कियों की उच्च शिक्षा और प्रशासनिक विभाग में सर्विस का तो ख़याल तक ईमान के ख़िलाफ़ था। न जाने ये कौन-सी हिकमत थी कि अपनी नस्लों को हिन्दी, अंग्रेज़ी से महरूम रखा गया। इसका ये नुक़सान भी हुआ कि हमारे बीच ऐसे स्कॉलर पैदा होने कम हो गए जो वतनी भाइयों की ज़बान में दीनी बातों को समझाते। ये नुक़सान भी हुआ कि दीन में कमी निकालने वाला गरोह पैदा हो गया।

सबसे ज़्यादा हिकमत और मस्लिहत राजनितिक विभाग में दिखाई गई। तालीमी मैदान में तो कुछ सुधार हो चुके हैं या हो रहे हैं, मदरसों के स्टूडेंट्स भी दुनियावी तालीम के सब्जेक्ट्स पढ़ रहे हैं, लेकिन राजनीति में अभी तक हम ख़ाह-म-ख़ाह अन्देशों के शिकार हैं, और जिन अन्देशों से बचने के लिये हमने मस्लिहत का दामन पकड़ा था वो अन्देशे पूरी शक्ल में मौजूद हैं। एमरजेंसी तक कॉंग्रेस को मुस्लिम पार्टी का दर्जा हासिल रहा। इसलिये कोई दूसरी जमाअत कैसे बन जाती, उसके बाद अपनी सियासी पार्टी बनाने का ख़याल जब भी किसी के दिल में आया, हिकमत के ठेकेदारों और मस्लिहत के सौदागरों ने कहा कि इससे मिल्लत को नुक़सान होगा।

हिन्दू बहुसंख्यक एक हो जाएँगे। हिन्दू और मुसलमानों में दूरियाँ बढ़ जाएँगी। किसी ने कहा कि ये लीडर ख़ुद बीजेपी का एजेंट है, इन्हें नागपुर से फ़ंडिंग होती है। बाबरी मस्जिद गिरा दिये जाने के बाद पूरी मिल्लत बीजेपी हराओ के एजेंडे के साथ मैदान में उतर गई, दुश्मन को हराने की धुन में दोस्तों को परखना भी भूल गई, आख़िर सेक्युलर सियासी पार्टियों का ये ज़हन बन गया कि “मुसलमान काम-वाम पर वोट नहीं देते, वो केवल बीजेपी को हराने के लिये वोट देते हैं।”

मस्लिहत की चादर ने हमें ये देखने से भी महरूम कर दिया कि ब्रादराने-वतन की दो प्रतिशत आबादी वालों तक ने अपनी सियासी जमाअत बना ली और हम दूसरों की ग़ुलामी कर रहे हैं। मुझे बताइये कि सारी दुनिया अपनी फ़तह के ख़्वाब देखती है और उसे पूरा करने के लिये प्लानिंग करती है और हम किसी की हार देखकर मुत्मइन हैं। क्या अब भी हमारे दानिशवर जागेंगे नहीं, अब तो मस्जिदों तक को केसरिया रंग दिया जा रहा है। क्या अभी भी आप सेक्युलर पार्टियों से किसी भलाई की उम्मीद लगाए बैठे हैं।

हम मस्लिहत का इतने शिकार हैं कि अपने हिम्मतवाले लीडर्स की हिम्मत तोड़ने लगते हैं। किसान बिल वापसी पर एक लीडर ने NRC और CAA का इशू उठाया तो कई लोग कहने लगे “बात तो ठीक है, मगर वक़्त मुनासिब नहीं।” मैं हिकमत और मस्लिहत का इनकार नहीं करता हूँ लेकिन ये फ़ैसला कौन करेगा कि कौन-सी बात मस्लिहत और हिकमत के मुताबिक़ है और कौन-सी ख़िलाफ़ है। अपने पिछले फ़ैसलों को जाँचने का एक पैमाना हो सकता है कि इन फ़ैसलों के नतीजे क्या रहे, अगर पॉज़िटिव नतीजे निकले तो वो फ़ैसला हकीमाना था और नेगेटिव रिज़ल्ट की सूरत में फ़ैसला ग़ैर-हकीमाना था।

अब आप आज़ादी के बाद से अब तक उन बड़े फ़ैसलों पर नज़र डाल लीजिये जो हमारे लीडर्स और बड़े-बड़े इदारों ने मस्लिहत और हिकमत के नाम पर लिये और उनके नतीजे देख लीजिये। आप हिकमत से काम ज़रूर लीजिये लेकिन अपनी कमज़ोरी और बुज़दिली को हिकमत का नाम मत दीजिये।

अपनी कमज़ोरी छिपा ली मस्लिहत की आड़ में।
बुज़दिली को हमने पहनाया है हिकमत का लिबास॥

ये लेखक के अपने विचार है।

कलीमुल हफ़ीज़, नई दिल्ली

शुक्रिया Hamara Samaj Mumbai Urdu News Akhbar-e-Mashriq Roznama Khabrein Millat Times Millat Times Hindi

  • Mohammad Rafiq

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    One thought on “बुज़दिली को हमने पहनाया है हिकमत का लिबास

    1. KALIMUL HAFEEZ SB NE BOHOT HI ACHHA LIKHA HAE . BUJHDIL LOG KISI ZURM YAA INJUSTICE KE KHILAF NAA BOLNE KO HIKMAT E AMLI YAA HIKMAT KAA USE KARTKE APNE KO JUSTIFY KARTE HAEN.

      I fully endorse Kalimul Hafeez sb views .

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